आँखों का धोखा,
जिसे मंजिल समझने की भूल
अक्सर कर जाते हैं
ठोकर लगनी होती है जहाँ,
चाह कर भी नहीं संभल पाते हैं .
लड़खड़ाते हैं ,
गिरते हैं ,
और फिर ,
उठ कर चल देते है,
यंत्रवत उसी राह पर,
बंद होठो की पीड़ा और दर्द
अँधेरे में विसर्जित कर,
जैसे जो कुछ हुआ
वह कोई नया नहीं हैं,
भुला देते हैं जल्द ही,
बड़ी से बड़ी ठोकर,
दर्द का अहसास ,
और फिर भटकने लगते हैं,
नयी मरीचिकाओं के बीच ..........
******* शिव प्रकाश मिश्र *******
No comments:
Post a Comment