सरे बाज़ार में ईमान धरम बेंच रहे हैं,
बोलियाँ बोल कर इन्सान का मन बेंच रहे हैं.
रक्त अधरों पे उदित हास क्या करे कोई ,
साजे गम फख्र के आने की झलक बेंच रहें हैं..
मांगने पर नहीं मिलता था कभी कुछ जिनसे,
धर्म के नाम पर आकर के रहम बेंच रहे हैं.
आश भगवान् से निर्विरोध क्या करे कोई,
आज इन्सान ही इंसान को खुद बेंच रहें हैं..
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- शिव प्रकाश मिश्र " निर्विरोध "
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