Sunday, September 26, 2010

पतझड़ का पेड़

मैं पतझड़ का पेड़ हूँ,
छाया और हरित विहीन,
अपने आप टूट रहा हूँ,
अनगिनत आशाएं
फूली फली कभी,
और अनगिनत बहारों में,
आये कितने ही फूल और फल,
मोहक आकर्षण में ,
कितने ही पंथियों का था,
मै आश्रय स्थल,
बहारों के साथ,
काफिला खिसक गया,
प्यार और अपनापन,
छूमंतर हो गया,
और अब है
यहाँ वीरान,
मरघट सा सुनसान
शायद
फिर कोई आये
अपना हाथ बढाये
प्रेम का दिया जलाये
और
मेरे सूखेपन का श्राप
फलित हो जाये,
इस आशा में,
थोडा सा ही सही
जमीन से जुड़ा हूँ मै,
और
प्रतीक्षा में
सूखा ही सही
न जाने कब से,
खड़ा हूँ मै.
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- शिव प्रकाश मिश्र
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1 comment:

  1. छुप छुप अंश्रु बहाने वालो, मोती व्यर्थ लुटाने वालों
    कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है

    सपना क्या है, नयन सेज पर सोया हुआ आँख का पानी
    बह जाना उसका यूँ की जागे कच्ची नींद जवानी
    कच्ची उम्र बनाने वालो, डूबे बिना नहाने वालो
    कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है
    - गोपाल दस नीरज

    Ashish
    http://bhajan-text.blogspot.com

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